Wednesday, November 21, 2018

रूद्राभिषेक का अर्थ एवं माहात्म्य


अभिषेक का मतलब होता है – स्नान करना या कराना। यह स्नान भगवान शंकर को उनकी प्रसन्नता हेतु जल एवं रूद्र-मंत्रों के साथ करवाया जाता है इसको रूद्राभिषेक कहते हैं। जल की धारा शिवजी को अति प्रिय है। साधारण रूप से अभिषेक या तो जल या गंगाजल से होता है परंतु विशेष अवसर एवं विशेष प्रयोजन हेतु दूध, दही, घी, शकर, शहद, पंचामृत आदि वस्तुओं से किया जाता है।



शिव को रूद्र इसलिए कहा जाता है – ये रूत् अर्थात् दुख को नष्ट कर देते है। आसुतोष भगवान सदाशिव की उपासना में रूद्राभिषेक का विशेष माहात्म्य है। वेद के ब्राहमण-ग्रन्थों में, उपनिषदों मंे, स्मृतियों में और पुराणों में रूद्राभिषेक के पाठ, जप आदि कि विशेष महिमा का वर्णन है। रूद्राध्याय के समान जपनेयाग्य, स्वाध्याय करनेयोग्य वेदों और स्मृतियों आदि में अन्य कोई मंत्र नहीं है। इस ग्रन्थ में ब्रह्म के निर्गुण एवं सगुण दोनों रूपों का वर्णन है। मन, कर्म तथा वाणी से परम पवित्र तथा सभी प्रकार की आसक्तियों से रहित होकर भगवान सदाशिव की प्रसन्नता के लिए रूद्राभिषेक करना चाहिए। मनुष्य का मन विषयलोलुप हाकर अधोगति को प्राप्त न हो और व्यक्ति अपनी चित्तवृत्तियों को स्वच्छ रख सके इसके निमित्त रूद्रका अनुष्ठान करना मुख्य साधन है। यह रूद्रनुष्ठान प्रवृत्ति-मार्ग से निवृत्ति मार्ग को प्राप्त कराने में समर्थ है। इसके जप, पाठ से तथा अभिषेक आदि साधनों से भगवद्भक्ति, शान्ति, पुत्र-पौत्रादी की वृद्धि, धन-धान्य की संपन्नता, तथा स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। वहीं परलोक मंे सद्गति एवं परमपद (मोक्ष) भी प्राप्त होता है। रूद्राभिषेक परम पवित्र तथा धन, यश, और आयु की वृद्धि करनेवाला है। अपने कल्याण के लिए भगवान सदाशिव की प्रसन्नता के लिए निष्कामभाव से यजन करना चाहिए, इसका अनंत फल होता है। सब प्रकार की सि़िद्ध के लिए रूद्राभिषेक करने से समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है।

रूद्राभिषेक करवाने से लाभ
भगवान शिवजी कि प्रसन्नता के लिए रूद्राभिषेक करवाना चाहिए।
इससे अमाप पुण्यों की प्राप्ति होती हैं एवं पापों का नाश होता है।
रूद्राभिषेक से भगवान शिवकी कृपा से सभी कामनाओं की पूर्ति होती है।
रूद्राभिषेक करने वाला परा मुक्ति, सायुज्य मुक्ति, विशुद्ध मुक्ति, कैवल्य पद, परम गति को प्राप्त करता है।

जो रोगी और पापी रूद्राभिषेक करता है वह रोग और पाप से मुक्त होकर सुख को प्राप्त करता है।
रूद्राभिषेक करने से उपद्रवों की शांति होती है।
रूद्राभिषेक करवाने से जीवन आनंद एवं शांतिपूर्ण व्यतीत होता है एवं दीर्घजीवन की प्राप्ति होती है।
इसके करवाने से संर्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होते है।
यह कल्मशों का नाशक, सब पापों का निवारक तथा सब प्रकार के दुखों और भयों को दूर करनेवाला है।
इसके करवाने से व्यक्ति सुरापान के दोष से छूट जाता है।
रूद्राभिषेक करवाने से व्यक्ति ब्रहमहत्या के दोष से मुक्त हो जाता है।
इसके करवाने से व्यक्ति स्वर्ण की चोरी के पाप से छुट जाता है।
रूद्राभिषेक के प्रभाव से व्यक्ति शुभाशुभ कर्मो से उद्धार पाता है एवं वह भगवान शिवजी के आश्रित हो जाता है।
इससे ज्ञान की प्राप्ति होती है एवं व्यक्ति भवसागर से पार हो जाता है।
आकस्मीक संकट की स्थिति में रूद्राभिषेक करवाने से शिवजी की कृपा से भयंकर स्थिति भी टल जाती है।

विभिन्न द्रव्यों से अभिषेक करने पर लाभ

जल की धारा शिवजी को अति प्रिय है। भगवान शिवजी को प्रसन्न करने हेतु रूद्राभिषेक विभिन्न द्रव्यों जैसे – दूध, दही, घी, शहद, पंचामृत, सरसों, शकर, गन्ने के रस आदि से किया जाता है। इन द्रव्यों के द्वारा अभिषेक करने पर जो लाभ होते हैं वे निम्नलिखित है:-

जल से अभिषेक करने पर:- जल से अभिषेक करने पर वर्षा होती है।
तीर्था के जल से अभिषेक करने पर:-तीर्थाें के जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। ज्वर को शांत करने के लिए जल की धार से अभिषेक करना चाहिए।
दूध से अभिषेक करने पर:- दूध से अभिषेक करने पर पुत्र की प्राप्ति होती है। प्रमेह रोग का नाश होता है। मनोभिलाषित कामना की पूर्ति होती है।
शक्कर से मिले दूध से अभिषेक करने पर:-शक्कर से मिले दूध से अभिषेक करने पर बुद्धि की जडता का नाश होता है एवं बुद्धि श्रेष्ठ होती है।
गोदुग्ध द्वारा अभिषेक करने पर:-गोदुग्ध द्वारा अभिषेक करने पर वन्ध्या को पुत्र की प्राप्ति होती है, एवं जिसकी संतान होकर मर जाती हैं उसकी संतान की रक्षा होती है। मनुष्य को दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है।
दही से अभिषेक करने पर:-दही से अभिषेक करने पर पशुओं की प्राप्ति होती है।
घी से अभिषेक करने पर:-घी से अभिषेक करने पर वंश का विस्तार होता है। इससे आरोग्य की प्राप्ति भी होती है।
शहद के द्वारा अभिषेक करने पर:-शहद के द्वारा अभिषेक करने पर पापों का नाश होता है। तपेदिक आदि रोग भी दूर हो जातें है।
शहद एवं धी से अभिषेक करने पर:-शहद एवं धी से अभिषेक करने पर धन की प्राप्ति होती है।
गन्ने के रस से अभिषेक करने पर:-गन्ने के रस से अभिषेक करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
कुशोदक से अभिषेक करने पर:-कुशोदक से अभिषेक करने पर व्याधि की शांति होती है। इससे उपद्रवों कि शांति भी होती है।
सरसों के तेल से अभिषेक करने पर:-सरसों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रुका विनाश होता है।

उपर्युक्त द्रव्यों से अभिषेक करने पर भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न होकर भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करते है, एवं भक्तों के संकटों का नाश करते है। अतः विधि-विधान से खूब श्रद्धा एवं विश्वास के साथ रूद्राभिषेक करना चाहिए।

पूरा संसार अपितु पाताल से लेकर मोक्ष तक जिस अक्षर की सीमा नही ! ब्रम्हा आदि देवता भी जिस अक्षर का सार न पा सके उस आदि अनादी से रहित निर्गुण स्वरुप ॐ के स्वरुप में विराजमान जो अदितीय शक्ति भूतभावन कालो के भी काल गंगाधर भगवान महादेव को प्रणाम करते है ।

अपितु शास्त्रों और पुरानो में पूजन के कई प्रकार बताये गए है लेकिन जब हम शिव लिंग स्वरुप महादेव का अभिषेक करते है तो उस जैसा पुण्य अश्वमेघ जैसेयाग्यों से भी प्राप्त नही होता !

स्वयं श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है की जब हम अभिषेक करते है तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करने लगते है । संसार में ऐसी कोई वस्तु , कोई भी वैभव , कोई भी सुख , ऐसी कोई भी वास्तु या पदार्थ नही है जो हमें अभिषेक से प्राप्त न हो सके! वैसे तो अभिषेक कई प्रकार से बताये गये है । लेकिन मुख्या पांच ही प्रकार है !

(1) रूपक या षडड पाठ - रूद्र के छः अंग कहे गये है इन छह अंग का यथा विधि पाठ षडंग पाठ खा गया है ।

शिव कल्प शुक्त --------1. प्रथम हृदय रूपी अंग है

पुरुष शुक्त ---------------2. द्वितीय सर रूपी अंग है ।

अप्रतिरथ सूक्त ---------3. कवचरूप चतुर्थ अंग है ।

मैत्सुक्त -----------------4. नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है ।

शतरुद्रिय ---------------5. अस्तरूप षष्ठ अंग खा गया है ।

इस प्रकार - सम्पूर्ण रुद्रश्त्ध्ययि के दस अध्यायों का षडडंग रूपक पाठ कहलाता है षडडंग पाठ में विशेष बात है की इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवे अध्याय की आवृति नही होती है ।

(2) रुद्री या एकादिशिनि - रुद्राध्याय की गयी ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते है रुद्रो की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है ।

(3) लघुरुद्र- एकादिशिनी रुद्री की ग्यारह अव्रितियों के पाठ के लघुरुद्रा पाठ खा गया है ।

यह लघु रूद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है । तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादिशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रूद्र संपन्न होती है ।



(4) महारुद्र-- लघु रूद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री का 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है । यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है ।



(5) अतिरुद्र ---- महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री का 1331 आवृति पथ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है

ये (1)अनुष्ठात्मक (2) अभिषेकात्मक (3) हवनात्मक , तीनो प्रकार से किये जा सकते है शास्त्रों में इन अनुष्ठानो की अत्यधिक फल है व तीनो का फल समान है।




पार्थिव पूजन की विधि

भगवान आशुतोष महादेव का एक स्वरुप पार्थिव लिंग भी है । संसार की ऐसी कोई मनोकामना या यु कहे संसार में ऐसा कुछ भी नही है जो हमें पार्थिव पूजन से प्राप्त हो सके ।

पुराणों मे कइ जगह समय समय पर ब्रह्मा आदि देवताओं ने पार्थिव पूजन करके अपने विप्तियों को दूर करने की कई कथा आती है ।स्वयं माँ पार्वती जी ने शिव को प्राप्त करने के लिए पार्थिव (मिटटी का शिवलिंग) बनाकर उनकी आराधना की थी ।

श्री राम नाम की महिमा

कलयुग में न जप है न तप है और न योग ही है।सिर्फ राम नाम ही इस कलिकाल में प्राणी मात्र का सहारा है। श्री राम चन्द्र जी सहज ही कृपा करने वाले और परम दयालु हैं उस पर उनका नाम तो प्राणी मात्र को अभय प्रदान करने वाला और परम कल्याण कारी है।कलयुग में राम नाम का लिखित जाप सभी पापों को नष्ट कर मुक्ति प्रदान करने वाला है।इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए इस वेबसाइट का निर्माण किया गया है।आप सबसे हमारा अनुरोध है जितना अधिक संभव हो राम नाम का लिखित जप करें।इसी में हम सब का कल्याण है।

1,25,000 - इस जन्म में अजिॅत पापो का नाश होना शुरू हो जाता है ।
2,25,000 -जीवन के पापो का शमन हो जाता है व सभी क्रूर व दुष्ट गृहों का निवारण शुरू हो जाता है
5,00,000 -भगवान राम की कृपा से चरणों की भक्ति में वृध्दि होती हैं ।
10,00,000 -पूर्व जन्मों के समस्त पापो का क्षय होता हैं ।
25,00,000 -जीवन के दुःस्वप्न का नाश होता हैं एवं समस्त ऐश्वर्य भाग व मुक्ति का फल मिलता हैं ।
50,00,000 -सभी तरह को पुण्यों एवं यज्ञों का फल मिलता हैं ।
75,00,000 -अनेक जन्मों के पापौ का नाश हो जाता हैं तथा भगवान राम की अखण्ड भक्ति मिलती हैं ।
1,00,00,000 -अश्वमेघ यज्ञ के द्विगुण रूप में फल मिलता हैं और - सर्वपाप विनिर्मुक्तो विष्णु लोकं स गच्छति ।

Thursday, November 15, 2018

हवन - पूजन सामग्री में सावधानी जरुरी

हवन - पूजन सामग्री में सावधानी जरुरी

हवन और यज्ञ का महत्व सभी जानते हैं l आध्यात्मिक, घर - परिवार, धन, सुख व स्वास्थ्य लाभ के लिए जप व हवन आदि सनातनधर्मी करते रहते हैं ल आजकल जानकारी मिल रही हैं कि
हवन के बाद साँस में तकलीफ, आंख में तकलीफ और कभी कभी त्वचा रोग भी हो रहे हैं। ऐसा बाज़ार में बिक रही नकली हवन और पूजन सामग्री के कारण भी हो रहा है। हवन में प्रायः शुद्ध देशी घी, अगर, तगर ,धार, शहद ,चन्दन की लकड़ी और बुरादा,सप्तमृत्तिका, रोली, सिंदूर, कपूर ,मौली, दूध दही, हल्दी, इत्र ,तिल का तेल, केसर ,भोजपत्र ,नैवेद्य ,गुग्गुल, कमलगट्टा ,जटामांसी आदि का प्रयोग मुख्यतः होता है। इनके अलावा अन्य कई सामग्रियां स्वयं हवनकर्ता को जुटानी पड़ती हैं। पहले लोग हवन सामग्री जंगल, बाग़ - बगीचों व अपने गाँव से ही एकत्र करते थे पर अब इस शहरी युग में हर चीज़ मिलने का एक स्थान बाज़ार ही है।
बाजार में मिलने वाले अधिकांश हवन सामग्री पैकेटों में लकड़ी का बुरादा, झाड़ू का बुरादा, कागज और कूड़ा - करकट की मात्रा अधिक मिलेगी। साथ ही गाजर घास के अंश जो सब जगह आसानी से मिल जाती है और टीबी ,दमा ,नेत्र रोगों को जन्म देती है। ऐसी हवन सामग्री से हवन कर क्या लाभ होगा। आपकी श्रद्धा के बल पर जो मिलना होगा केवल वही मिलेगा बाकि तो जब आप कुड़े से हवन करेंगे और देवता कूड़ा ग्रहण करेंगे तो प्रतिफल क्या होगा आप खुद समझ सकते हैं। ऐसे में लोग भारतीय पूजा पद्धति मंत्र, तंत्र, यंत्र ,ज्योतिष सब पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं। इसी तरह अच्छा घी 450 - 600 रुपए किलो से उपर बिक रहा है वहीँ बाजार में हवन के लिए घी चाहिए तुरंत दुकानदार 150₹- 200 रुपए किलो का पेकेट दिखा देगा। उसपर कहीं न कहीं लिखा मिल जायेगा की "नोट फॉर इंटरनल यूज़ या ह्यूमन यूज़ या नॉन एडिबल।" क्योंकि उनमे पेट्रोलियम जेली और पशुओं की चर्बी होती है घी की बस खुशबु होती है। अब ऐसे घी से हवन कर आप क्या लाभ लेंगे? हवन का एक बेहद महत्वपूर्ण अंग है गुग्गुल। शुद्ध गुग्गुल क्वालिटी अनुसार 1500 से 2500 रूपये प्रति किलो तक मिलता है वहीं आज अधिकतर पंसारियों के पास 700 से 1000 रूपये किलो में मिल रहा है।सुनने में आया है कि मुनाफाखोर बड़ी मात्रा में नकली गूगल तैयार करवाते हैं। इसके लिए विदेशों से मिलने वाले रेजिन नामक केमिकल रसायन का उपयोग किया जाता है। इस केमिकल में समुद्र की गरम रेत, रंग और खुशबू मिलाते हैं। इसे मशीन से टुकड़ों में तोड़ा जाता है। जब हवनकुंड में इसे डाला जाता है तो केमिकल चूंकि ज्वलनशील होता है तो वो जल जाता है और रेत व अन्य चीजें बाकी सामग्रियों के साथ मिल जाती हैं। यही वजह है कि हवन के दौरान गुग्गुल की जो ह्रदय तृप्त करने वाली विशेष सुगंध वाला धुआं आना चाहिए, वैसा नहीं आता, बल्कि इससे छींक, सिर चकराना, चक्कर आना जैसी शिकायतें हो जाती हैं।
अगर बत्ती और धुप बत्ती का मुद्दा तो पुराना हो गया है। अगरबत्ती में जहाँ खुशबूदार बुरादा बांस की डंडी में चिपका होता है वहीँ धूप बत्ती में मोबिल आयल का कचरा, नकली तेलों के ड्रमों के पेंदे में जमा गंदगी और खुशबु दर बुरादा रहता है। ऐसी चीजों की खुशबु से देवता प्रसन्न नहीं होंगे।इसके अलावा धार यानि सूखे फलों के चूर्ण के नाम पर सड़े सूखे फलों का चूर्ण मिलता है । अशुद्ध हवन सामग्री एवं अनुचित मात्रा सर्वथा त्याज्य है।
हवन सामग्री में जितना तिल काम में लिया जाता है उससे आधा चावल और चावल का आधा जौं आदि लिया जाता है l वहीँ अब रेडीमेड पैकेट आ रहे हैं जिसमे तिल ही सबसे कम रहता है क्योंकि यह सबसे महंगा है। ऐसी मान्यता है की ये मात्रा सही न होने पर यज्ञ करने वाला और यजमान दोनों ही गंभीर रोगों के शिकार बनते हैं। शहद में शीरा मिला होता है। चन्दन की लकड़ी और बुरादे के नाम पर नकली एसेंस डाल कर चन्दन के साथ भिगो कर लकड़ियाँ बिकती हैं ।सप्तमृत्तिका यानि सात स्थानों की मिटटी जिसमे हाथी के खुर, घोड़े के खुर ,दीमक की बाम्बी, राजा के घर की ,तीर्थ स्थल की ,गोशाला की और नदी तट की मिटटी चाहिए होती है। अब इसके भी पैकेट आने लगे हैं । अब किस्मे कितना और क्या होगा भगवान ही जाने? कपूर की आजकल टिक्की मिलती है वह आरती ख़तम दीपक शांत पर टिक्की सलामत बची रहती है। असली कपूर की पहचान ही यही थी कि खुला रखा हो तो हवा में उड़ जायेगा और जलेगा तो जलने के बाद कुछ शेष नहीं बचता था। वो कपूर लोग सर में लगाते थे , पेट ठीक ने होने पर एक चुटकी फांक लेते थे ,दांत दर्द में दांत के निचे दबाते थे। पर इस पैकेट वाले कपूर में लिखा होता है "नॉन एडिबल या नॉट फॉर इंटरनल यूज़। केसर की मिलावट के बारे में तो जितना कहें कम है। रोली भी सिंथेटिक आ रही है रंग मिली और सिंदूर भी। आज सुबह तिलक करो तो परसों तक माथे पे निशान बना रहे ऐसी। इतनी पक्की।कलावा भी कच्चे सूत की जगह सिंथेटिक धागे और पक्के सूत का आने लगा है। कमलगट्टा जैसी चीज़ भी अब नकली आने लगी है तो लक्ष्मी माता कहाँ से प्रसन्न हों।
जटामांसी भी नकली आती है उसके जैसी दिखने वाली चिजों में अन्यथा किसी भी पौधे के चूर्ण में एसेंस डालकर जटामांसी चूर्ण के नाम पर बिकता है।तिल का तेल और हल्दी भी मिलावट युक्त आ रही है । अतः आपसे अनुरोध है की किसी भी प्रकार की पूजन और हवन सामग्री किसी भरोसे के स्थान से खरीदें या स्वयं एकत्र करें। ये महंगी अवश्य होगी पर इसके इस्तेमाल के बाद आपको इनका असर भी नज़र आयेगा। अन्यथा नकली कूड़ा करकट केमिकल एसेंस मिली पूजन हवं सामग्री के इस्तेमाल से न सिर्फ आपके धन का नुकसान होगा बल्कि आपकी श्रद्धा और विश्वास को चोट लगेगी। हवन के लिए बाजार से पैकेट बन्द सामग्री लेने के स्थान पर घर में मौजूद चीजों से ही मुख्य सामग्री तैयार कर हवन करें ।
सामान्य हवन की सामग्री: - जौं का दोगुना चावल, उसका दोगुना तिल, जौं सम्भाग शक्कर दोगुना घी होना चाहिए।इसके दशांश में गुग्गुल, सूखे मेवे जैसे बादाम, किशमिश मुनक्का अंजीर , मखाने, चिरौंजी, नारियल और पँचांश में अगर तगर नागकेसर तेजपत्र, तमालपत्र, हल्दी, कचूर, कपूर, दारुहल्दी, केसर, इंद्रजौं, कमलगट्टे, भोजपत्र, जटामासी, चन्दन लौंग इलायची, गिलोय, पित्तपापड़ा, अपामार्ग इत्यादि।
किसी प्रयोजन विशेष हेतु किये गए हवन में सामग्री उसी अनुसार बनेगी चाहे धन, यश स्वास्थ्य हेतु हो या अन्य कार्य। कई हवनों एवं विशेषतः तांत्रिक हवन हेतु कई या कुछ विशेष सामग्रियां निर्दिष्ट रहती हैं वे आप हवन करवाने वाले आचार्य या पुरोहित जी से जान सकते हैं। हवन सामग्री की परख भी उनसे ही करवा लें l
नोट:- मेरे लेख से किसी की भावनाओं को ठेस पहुंची तो तो उनका में क्षमाप्रार्थी हूँ ।बुद्धि जीविंयो के विचार सादर आमंत्रित हैं ।

अच्छा पूजा किसकी करते हो..??

पंडित जी बहुत परेशान हूँ.. सारा जीवन पूजा पाठ किया, मिला कुछ नहीं...

अच्छा पूजा किसकी करते हो..??

अरे सबकी करते हैं, बहुत करते हैं, रोज 1 घंटे से ज्यादा...
एक पाठ हनुमान चालीसा
एक बार बजरंग बाण
एक पाठ हनुमानाष्टक
एक पाठ शिव चालीसा
एक बार दुर्गा चालीसा
ग्यारह बार महामृत्युंजय
ग्यारह बार नवार्ण मंत्र
ग्यारह बार नरसिंह मंत्र
एक माला गुरुमंत्र
फला ज्योतिषी जी का बताया हुआ ये
फला महराज का बताया हुआ ये... आदि आदि

       ऐसे परेशान लोगों से नित्य सामना होता ही रहता है, उनसे मेरा एक सवाल:
 अगर पृथ्वी से जल निकालना हो तो हज़ार जगह एक एक फावड़ा मरोगे या एक ही जगह हज़ार...?
     फिर कहेंगे सारे देवी देवता हैं तो एक ही.. तो भैया पृथ्वी भी है तो एक ही, निकालो जल...??
   
   अर्थात किसी एक इष्ट का एक ही मंत्र या पाठ पकड़ लो, सारी भक्ति, शक्ति, श्रध्दा, समय, ऊर्जा वहीं लगा दो.. देखों कैसे रौनक नहीं आती

Wednesday, October 3, 2018

कनकधारा यंत्र : संपन्न रहने का अचूक उपाय

हम सभी जीवन में ‍आर्थिक तंगी को लेकर बेहद परेशान रहते हैं। धन प्राप्ति के लिए हरसंभव श्रेष्ठ उपाय करना चाहते हैं। धन प्राप्ति और धन संचय के लिए पुराणों में वर्णित कनकधारा यंत्र एवं स्तोत्र चमत्कारिक रूप से लाभ प्रदान करते हैं। इस यंत्र की विशेषता भी यही है कि यह किसी भी प्रकार की विशेष माला, जाप, पूजन, विधि-विधान की माँग नहीं करता बल्कि सिर्फ दिन में एक बार इसको पढ़ना पर्याप्त है।

साथ ही प्रतिदिन इसके सामने दीपक और अगरबत्ती लगाना आवश्यक है। अगर किसी दिन यह भी भूल जाएँ तो बाधा नहीं आती क्योंकि यह सिद्ध मंत्र होने के कारण चैतन्य माना जाता है। वेबदुनिया के यूजर्स के लिए हम दे रहे हैं कनकधारा स्तोत्र का संस्कृत पाठ एवं हिन्दी अनुवाद। आपको सिर्फ कनकधारा यंत्र कहीं से लाकर पूजाघर में रखना है।


यह किसी भी तंत्र-मंत्र संबंधी सामग्री की दुकान पर आसानी से उपलब्ध है। माँ लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए जितने भी यंत्र हैं, उनमें कनकधारा यंत्र तथा स्तोत्र सबसे ज्यादा प्रभावशाली एवं अतिशीघ्र फलदायी है।हम सभी जीवन में ‍आर्थिक तंगी को लेकर बेहद परेशान रहते हैं। धन प्राप्ति के लिए हरसंभव श्रेष्ठ उपाय करना चाहते हैं। धन प्राप्ति और धन संचय के लिए पुराणों में वर्णित कनकधारा यंत्र एवं स्तोत्र चमत्कारिक रूप से लाभ प्रदान करते हैं।

   

।। श्री कनकधारा स्तोत्रम् ।।



अंगहरे पुलकभूषण माश्रयन्ती भृगांगनैव मुकुलाभरणं तमालम।

 अंगीकृताखिल विभूतिरपांगलीला मांगल्यदास्तु मम मंगलदेवताया:।।1।।

मुग्ध्या मुहुर्विदधती वदनै मुरारै: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।

माला दृशोर्मधुकर विमहोत्पले या सा मै श्रियं दिशतु सागर सम्भवाया:।।2।।

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्द हेतु रधिकं मधुविद्विषोपि।

ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्धमिन्दोवरोदर सहोदरमिन्दिराय:।।3।।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दम निमेषमनंगतन्त्रम्।

आकेकर स्थित कनी निकपक्ष्म नेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजंगरायांगनाया:।।4।।

बाह्यन्तरे मधुजित: श्रितकौस्तुभै या हारावलीव हरि‍नीलमयी विभाति।

कामप्रदा भगवतो पि कटाक्षमाला कल्याण भावहतु मे कमलालयाया:।।5।।

कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव्।

मातु: समस्त जगतां महनीय मूर्तिभद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनाया:।।6।।

प्राप्तं पदं प्रथमत: किल यत्प्रभावान्मांगल्य भाजि: मधुमायनि मन्मथेन।

मध्यापतेत दिह मन्थर मीक्षणार्द्ध मन्दालसं च मकरालयकन्यकाया:।।7।।

दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधाराम स्मिभकिंचन विहंग शिशौ विषण्ण।

दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण प्रणयिनी नयनाम्बुवाह:।।8।।

इष्टा विशिष्टमतयो पि यथा ययार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभंते।

दृष्टि: प्रहूष्टकमलोदर दीप्ति रिष्टां पुष्टि कृषीष्ट मम पुष्कर विष्टराया:।।9।।

गीर्देवतैति गरुड़ध्वज भामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर वल्लभेति।

सृष्टि स्थिति प्रलय केलिषु संस्थितायै तस्यै ‍नमस्त्रि भुवनैक गुरोस्तरूण्यै ।।10।।

श्रुत्यै नमोस्तु शुभकर्मफल प्रसूत्यै रत्यै नमोस्तु रमणीय गुणार्णवायै।

शक्तयै नमोस्तु शतपात्र निकेतानायै पुष्टयै नमोस्तु पुरूषोत्तम वल्लभायै।।11।।

नमोस्तु नालीक निभाननायै नमोस्तु दुग्धौदधि जन्म भूत्यै ।

नमोस्तु सोमामृत सोदरायै नमोस्तु नारायण वल्लभायै।।12।।

सम्पतकराणि सकलेन्द्रिय नन्दानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरूहाक्षि।

त्व द्वंदनानि दुरिता हरणाद्यतानि मामेव मातर निशं कलयन्तु नान्यम्।।13।।

यत्कटाक्षसमुपासना विधि: सेवकस्य कलार्थ सम्पद:।

संतनोति वचनांगमानसंसत्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे।।14।।

सरसिजनिलये सरोज हस्ते धवलमांशुकगन्धमाल्यशोभे।

भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्।।15।।

दग्धिस्तिमि: कनकुंभमुखा व सृष्टिस्वर्वाहिनी विमलचारू जल प्लुतांगीम।

प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथ गृहिणी ममृताब्धिपुत्रीम्।।16।।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरां गतैरपाड़ंगै:।

अवलोकय माम किंचनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयाया : ।।17।।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिर भूमिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।

गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते बुधभाविताया:।।18।।

इति श्री कनकधारा स्तोत्रं सम्पूर्णम


कनकधारा स्तोत्रम् (हिन्दी पाठ)


* जैसे भ्रमरी अधखिले कुसुमों से अलंकृत तमाल-तरु का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो प्रकाश श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी का वह कटाक्ष मेरे लिए मंगलदायी हो।।1।।


* जैसे भ्रमरी महान कमल दल पर मँडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है। समुद्र कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे धन संपत्ति प्रदान करे ।।2।।


* जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, मधुहन्ता श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनंद प्रदान करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर थोड़ी सी अवश्य पड़े।।3।।


* शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पु‍तली तथा बरौनियाँ अनंग के वशीभूत हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।4।।


* जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे।।5।।


* जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के श्यामसुंदर वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे।।6।


* समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझ पर पड़े।।7।।


* भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी धाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करे।।8।।


* विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्‍मासना पद्‍मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करे।।9।।


 जो सृष्टि लीला के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में अवस्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।।10।।


* मात:। शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।।11।।


* कमल वदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है। (12)


* कमल सदृश नेत्रों वाली माननीय माँ! आपके चरणों में किए गए प्रणाम संपत्ति प्रदान करने वाले, संपूर्ण इंद्रियों को आनंद देने वाले, साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा उद्यत हैं, वे सदा मुझे ही अवलम्बन दें। (मुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे)।।13।।


* जिनके कृपा कटाक्ष के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूँ।।14।।


* भगवती हरिप्रिया! तुम कमल वन में निवास करने वाली हो, तुम्हारे हाथों में नीला कमल सुशोभित है। तुम अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झाँकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।।15।।


* दिग्गजों द्वारा सुवर्ण-कलश के मुख से गिराए गए आकाश गंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक (स्नान) संपादित होता है, संपूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रात:काल प्रणाम करता हूँ।।16।।


* कमल नयन केशव की कमनीय कामिनी कमले!

मैं अकिंचन (दीन-हीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूँ, अतएव तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूँ। तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरह तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर देखो।।17।।

* जो मनुष्य इन स्तु‍तियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।।18।।


Wednesday, September 12, 2018

शिवलिंग पूजा का महत्व क्या हैं?




शिवमहा पुराण के सृष्टिखंड अध्याय १२ श्लोक ८२ से ८६ में ब्रह्मा जी के पुत्र संतकुमार जी वेदव्यास जी को उपदेश देते हुए कहते हैं, हर गृहस्थ मनुष्य को अपने सद्दगुरू से विधिवत दीक्षा लेकर पंचदेवों (गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा, शिव) की प्रतिमाओं का नित्य पूजन करना चाहिए। क्योंकि शिव ही सबके मूल हैं, इस लिये मूल (शिव) को सींचने से सभी देवता तृत्प हो जाते हैं परन्तु सभी देवताओं को प्रसन्न करने पर भी शिव प्रसन्न नहीं होते। यह रहस्य केवल और केवल सद्दगुरू कि शरण में रहने वाले व्यक्ति ही जान सकते हैं।
  • सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु ने एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के साथ निर्गुण, निराकार शिव से प्रार्थना की, प्रभु आप कैसे प्रसन्न होते हैं। भगवान शिव बोले मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो। जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है।(शिवमहापुराण सृष्टिखंड )
  • जब देवर्षि नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया और बाद में पश्चाताप किया तब विष्णु ने नारदजी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिवभक्तों का सत्कार, नित्य शिवशत नाम का जाप आदि उपाय सुझाये। (शिवमहापुराण सृष्टिखंड )
  • एक बार सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी सभी देवताओं को लेकर क्षीर सागर में श्री विष्णु के पास परम तत्व जानने के लिए पहोच गये। श्री विष्णु ने सभी को शिवलिंग की पूजा करने का सुझाव दिया और विश्वकर्मा को बुलाकर देवताओं के अनुसार अलग-अलग द्रव्य पदार्थ के शिवलिंग बनाकर देने का आदेश देकर सभी को विधिवत पूजा से अवगत करवाया। (शिवमहापुराण सृष्टिखंड )
  • ब्रह्मा जी ने देवर्षि नारद को शिवलिंग की पूजा की महिमा का उपदेश देते हुवे कहा। इसी उपदेश से जो ग्रंथ कि रचना हुई वो शिव महापुराण हैं। माता पार्वती के अत्यन्त आग्रह से, जनकल्याण के लिए निर्गुण, निराकार शिव ने सौ करोड़ श्लोकों में शिवमहापुराण की रचना कि। जो चारों वेद और अन्य सभी पुराण शिवमहापुराण की तुलना में नहीं आ सकते। भगवान शिव की आज्ञा पाकर विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने शिवमहापुराण को २४६७२ श्लोकों में संक्षिप्त किया हैं।
  • जब पाण्ड़व वनवास में थे , तब कपट से दुर्योधन पाण्ड़वों को दुर्वासा ऋषि को भेजकर तथा मूक नामक राक्षस को भेजकर कष्ट देता था। तब पाण्ड़वों ने श्री कृष्ण से दुर्योधन के दुर्व्यवहार से अवगत कराया और उससे छुटकारा पाने का मार्ग पूछा। तब श्री कृष्ण ने पाण्ड़वों को भगवान शिव की पूजा करने के लिए सलाह दी और कहा मैंने स्वयंने अपने सभी मनोरथों को प्राप्त करने के लिए भगवान शिव की पूजा की हैं और आज भी कर रहा हुं। आप लोग भी करो। वेदव्यासजी ने भी पाण्ड़वों को भगवान शिव की पूजा का उपदेश दिया। हिमालय से लेकर पाण्ड़व विश्व के हर कोने में जहां भी गये उन सभी स्थानो पर शिवलिंग कि स्थापना कर पूजा अर्चना करने का वर्णन शास्त्रों में मिलता हैं।
शिव महापुराण
सृष्टिखंड अध्याय ११ श्लोक १२ से १५ में शिव पूजा से प्राप्त होने वाले सुखों का वर्णन इस प्रकार हैं:
दरिद्रता, रोग कष्ट, शत्रु पीड़ा एवं चारों प्रकार के पाप तभी तक कष्ट देता है, जब तक भगवान शिव की पूजा नहीं की जाती। महादेव का पूजन कर लेने पर सभी प्रकार के दु:खोका शमन हो जाता हैं। सभी प्रकार के सुख प्राप्त हो जाते हैं एवं इससे सभी मनोकामनाएं सिद्ध हो जाती हैं।(शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय- ११ श्लोक१२ से १५

सुबह बोलें यह देवी मंत्र..तन-मन-धन की कमजोरी होगी दूर



सांसारिक जीवन में तन, मन हो या धन के सुख तभी संभव हैं, जब इन तीनों विषयों से जुड़े संयम, अनुशासन और प्रबंधन को कायम रखा जाए। अन्यथा तन की कमजोरी रोग, मन का भटकाव कलह और धन का अभाव दरिद्रता का कारण बन जाता है।

तन, मन व वैभव रूपी ऐसे सुख बंटोरने के लिए ही धार्मिक परंपराओं में गुप्त नवरात्रि (24 जनवरी से 1 फरवरी) की छठी रात मां कात्यायनी की पूजा की जाती है। पुराणों के मुताबिक जगत कल्याण हेतु कात्यायन ऋषि के घोर तप से प्रसन्न देवी ने उनकी पुत्री रूप में जन्म लिया और कात्यायनी नाम से जगत पूजनीय हुई।

मां कात्यायनी का सिंह पर विराजित चार भुजाधारी दिव्य स्वरूप है। देवी के चार हाथों में वर मुद्रा, अभय मुद्रा, कमल का फूल और खड्ग होता है। मां कात्याययनी की उपासना निर्भय और निरोगी कर सुख-संपन्न बनानी वाली मानी गई है।

इस दिन खासतौर पर सुबह नवदुर्गा के छठे स्वरूप मां कात्यायनी की घर या देवी मंदिर में जाकर गंध, अक्षत, फूल, नैवेद्य चढ़ाकर धूप-दीप जलाने के बाद नीचे लिखे देवी मंत्र का भय, संशय, अभाव, रोग से मुक्ति की कामना के साथ स्मरण करें -

सुखानन्दकरीं शान्तां सर्वदेवैर्नमस्कृताम्।

सर्वभूतात्मिकां देवीं शाम्भवीं प्रणमाम्यहम्।।

सरल अर्थ है - शांत स्वरूप, सभी देवताओं द्वारा पूजनीय, सारे जगत की आत्मा, सर्वव्यापी, सारे सुख और आनंद, भुक्ति और मुक्ति देने वाली मां शाम्भवी को मेरा प्रणाम हैं।

Tuesday, September 11, 2018

व्रत और उपवास

  • किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दिनभर के लिए अन्न या जल या अन्य भोजन या इन सबका त्याग व्रत कहलाता है।
  • किसी कार्य को पूरा करने का संकल्प लेना भी व्रत कहलाता है।
  • संकल्पपूर्वक किए गए कर्म को व्रत कहते हैं।
मनुष्य को पुण्य के आचरण से सुख और पाप के आचरण से दु:ख होता है। संसार का प्रत्येक प्राणी अपने अनुकूल सुख की प्राप्ति और अपने प्रतिकूल दु:ख की निवृत्ति चाहता है। मानव की इस परिस्थिति को अवगत कर त्रिकालज्ञ और परहित में रत ऋषिमुनियों ने वेद, पुराण, स्मृति और समस्त निबंधग्रंथों को आत्मसात् कर मानव के कल्याण के हेतु सुख की प्राप्ति तथा दु:ख की निवृत्ति के लिए अनेक उपाय कहे हैं। उन्हीं उपायों में से व्रत और उपवास श्रेष्ठ तथा सुगम उपाय हैं। व्रतों के विधान करनेवाले ग्रंथों में व्रत के अनेक अंगों का वर्णन देखने में आता है। उन अंगों का विवेचन करने पर दिखाई पड़ता है कि उपवास भी व्रत का एक प्रमुख अंग है। इसीलिए अनेक स्थलों पर यह कहा गया है कि व्रत और उपवास में परस्पर अंगागि भाव संबंध है। अनेक व्रतों के आचरणकाल में उपवास करने का विधान देखा जाता है।
व्रत धर्म का साधन माना गया है। संसार के समस्त धर्मों ने किसी न किसी रूप में व्रत और उपवास को अपनाया है। व्रत के आचरण से पापों का नाश, पुण्य का उदय, शरीर और मन की शुद्धि, अभिलषित मनोरथ की प्राप्ति और शांति तथा परम पुरुषार्थ की सिद्धि होती है। अनेक प्रकार के व्रतों में सर्वप्रथम वेद के द्वारा प्रतिपादित अग्नि की उपासना रूपी व्रत देखने में आता है। इस उपासना के पूर्व विधानपूर्वक अग्निपरिग्रह आवश्यक होता है। अग्निपरिग्रह के पश्चात् व्रती के द्वारा सर्वप्रथम पौर्णमास याग करने का विधान है। इस याग को प्रारंभ करने का अधिकार उसे उस समय प्राप्त होता है जब याग से पूर्वदित वह विहित व्रत का अनुष्ठान संपन्न कर लेता है। यदि प्रमादवश उपासक ने आवश्यक व्रतानुष्ठान नहीं किया और उसके अंगभूत नियमों का पालन नहीं किया तो देवता उसके द्वारा समर्पित हविर्द्रव्य स्वीकार नहीं करते।
ब्राह्मणग्रंथ के आधार पर देवता सर्वदा सत्यशील होते हैं। यह लक्षण अपने त्रिगुणात्मक स्वभाव से पराधीन मानव में घटित नहीं होता। इसीलिए देवता मानव से सर्वदा परोक्ष रहना पसंद करते हैं। व्रत के परिग्रह के समय उपासक अपने आराध्य अग्निदेव से करबद्ध प्रार्थना करता है-"मैं नियमपूर्वक व्रत का आचरण करुँगा, मिथ्या को छोड़कर सर्वदा सत्य का पालन करूँगा।" इस उपर्युक्त अर्थ के द्योतक वैदिक मंत्र का उच्चारण कर वह अग्नि में समित् की आहुति करता है। उस दिन वह अहोरात्र में केवल एक बार हविष्यान्न का भोजन, तृण से आच्छादित भूमि पर रात्रि में शयन और अखंड ब्रह्मचर्य का पालन प्रभृति समस्त आवश्यक नियमों का पालन करता है।
कुछ समय के पश्चात् वही उपासक जब सोमयाग का अनुष्ठान प्रारंभ करता है तो उसके लिए अत्यंत कठोर व्रत और नियमों का पालन करना अनिवार्य हो जाता है। याग के प्रारंभ में याज्ञीय दीक्षा लेते ही उसे व्रत और नियमों के पालन करने का आदेश श्रौत सूत्र देते हैं। यागकालीन उन दिनों में सपत्नीक उस उपासक को आहार के निमित्त केवल गोदुग्ध दिया जाता है। यह भी यथेष्ट मात्रा में नहीं अपितु प्रथम दिन एक गौ के स्तन से, दूसरे दिन दो स्तनों से और तीसरे दिन तीन स्तनों से जितना भी प्राप्त हो उतना ही दूध पीने की शास्त्र की अनुज्ञा है। उसी दूध में से आधा उसको ओर आधा उसकी धर्मपत्नी को दिया जाता है। यही उन दोनों के लिए अहोरात्र का आहार होता है। शास्त्रकारों ने इस दुग्धाहार की व्रत संज्ञा कही है। व्रत के समय में अल्पाहार करने से शरीर में हलकापन और चित्त की एकाग्रता अक्षुण्ण रहती है। व्रती के लिए अनुष्ठान के समय मद्य, मांस प्रभृति निषिद्ध द्रव्यों का सेवन तथा प्रात:काल एवं सायंकाल के समय शयन वर्ज्य है। सत्य और मधुर भाषण तथा प्राणिमात्र के प्रति कल्याण की भावना रखना आवश्यक है।
वैदिक काल की अपेक्षा पौराणिक युग में अधिक व्रत देखने में आते हैं। उस काल में व्रत के प्रकार अनेक हो जाते हैं। व्रत के समय व्यवहार में लाए जानेवाले नियमों की कठोरता भी कम हो जाती है तथा नियमों में अनेक प्रकार के विकल्प भी देखने में आते हैं। उदाहरण रूप में जहाँ एकादशी के दिन उपवास करने का विधान है, वहीं विकल्प में लघु फलाहार और वह भी संभव न हो तो फिर एक बार ओदनरहित अन्नाहार करने तक का विधान शास्त्रसम्मत देखा जाता है। इसी प्रकार किसी भी व्रत के आचरण के लिए तदर्थ विहित समय अपेक्षित है। "वसंते ब्राह्मणो%ग्नी नादधीत" अर्थात् वसंत ऋतु में ब्राह्मण अग्निपरिग्रह व्रत का प्रारंभ करे, इस श्रुति के अनुसार जिस प्रकार वसंत ऋतु में अग्निपरिग्रह व्रत के प्रारंभ करने का विधान है वैसे ही चांद्रायण आदि व्रतों के आचरण के निमित्त वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण तक का विधान है। इस पौराणिक युग में तिथि पर आश्रित रहनेवाले व्रतों की बहुलता है। कुछ व्रत अधिक समय में, कुछ अल्प समय में पूर्ण होते हैं।
नित्य, नैमित्तिक और काम्य, इन भेदों से व्रत तीन प्रकार के होते हैं। जिस व्रत का आचरण सर्वदा के लिए आवश्यक है और जिसके न करने से मानव दोषी होता है वह नित्यव्रत है। सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना आदि नित्यव्रत हैं। किसी प्रकार के पातक के हो जाने पर या अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण प्रभृति जो व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत हैं। जो व्रत किसी प्रकार की कामना विशेष से प्रोत्साहित होकर मानव के द्वारा संपन्न किए जाते हैं वे काम्य व्रत हैं; यथा पुत्रप्राप्ति के लिए राजा दिलीप ने जो गोव्रत किया था वह काम्य व्रत है।
पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए पृथक् व्रतों का अनुष्ठान कहा है। कतिपय व्रत उभय के लिए सामान्य है तथा कतिपय व्रतों को दोनों मिलकर ही कर सकते हैं। श्रवण शुक्ल पूर्णिमा, हस्त या श्रवण नक्षत्र में किया जानेवाला उपाकर्म व्रत केवल पुरुषों के लिए विहित है। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को आचारणीय हरितालिक व्रत केवल स्त्रियों के लिए कहा है। एकादशी जैसा व्रत दोनों ही के लिए सामान्य रूप से विहित है। शुभ मुहूर्त में किए जानेवाले कन्यादान जैसे व्रत दंपति के द्वारा ही किए जा सकते हैं।
प्रत्येक व्रत के आचरण के लिए थोड़ा या बहुत समय निश्चित है। जैसे सत्य और अहिंसा व्रत का पालन करने का समय यावज्जीवन कहा गया है वैसे ही अन्य व्रतों के लिए भी समय निर्धारित है। महाव्रत जैसे व्रत सोलह वर्षों में पूर्ण होते हैं। वेदव्रत और ध्वजव्रत की समाप्ति बारह वर्षों में होती है। पंचमहाभूतव्रत, संतानाष्टमीव्रत, शक्रव्रत और शीलावाप्तिव्रत एक वर्ष तक किया जाता है। अरुंधती व्रत वसंत ऋतु में होता है। चैत्रमास में वत्सराधिव्रत, वैशाख मास में स्कंदषष्ठीव्रत, ज्येठ मास में निर्जला एकादशी व्रत, आषाढ़ मास में हरिशयनव्रत, श्रावण मास में उपाकर्मव्रत, भाद्रपद मास में स्त्रियों के लिए हरितालिकव्रत, आश्विन मास में नवरात्रव्रत, कार्तिक मास में गोपाष्टमीव्रत, मार्गशीर्ष मास में भैरवाष्टमीव्रत, पौष मास में मार्तंडव्रत, माघ मास में षट्तिलाव्रत, और फाल्गुन मास में महाशिवरात्रिव्रत प्रमुख हैं। महालक्ष्मीव्रत भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को प्रारंभ होकर सोलह दिनों में पूर्ण होता है। प्रत्येक संक्रांति को आचरणीय व्रतों में मेष संक्रांति को सुजन्मावाप्ति व्रत, किया जाता है। तिथि पर आश्रित रहनेवाले व्रतों में एकादशी व्रत, किया जाता है। तिथि पर आश्रित रहनेवाले व्रतों में एकादशी व्रत, वार पर आश्रित व्रतों में रविवार को सूर्यव्रत, नक्षत्रों में अश्विनी नक्षत्र में शिवव्रत, योगों में विष्कुंभ योग में धृतदानव्रत, और करणों में नवकरण में विष्णुव्रत का अनुष्ठान विहित है। भक्ति और श्रद्धानुकूल चाहे जब किए जानेवाले व्रतों में सत्यनारायण व्रत प्रमुख है।
किसी भी व्रत के अनुष्ठान के लिए देश और स्थान की शुद्धि अपेक्षित है। उत्तम स्थान में किया हुआ अनुष्ठान शीघ्र तथा अच्छे फल को देनेवाला होता है। इसलिए किसी भी अनुष्ठान के प्रारंभ में संकल्प करते हुए सर्वप्रथम काल तथा देश का उच्चारण करना आवश्यक होता है। व्रतों के आचरण से देवता, ऋषि, पितृ और मानव प्रसन्न होते हैं। ये लोग प्रसन्न होकर मानव को आशीर्वांद देते हैं जिससे उसके अभिलषित मनोरथ पूर्ण होते हैं। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक किए गए व्रत और उपवास के अनुष्ठान से मानव को ऐहिक तथा आमुष्मिक सुखों की प्राप्ति होती है।

Thursday, August 23, 2018

माला से बदलें अपनी किस्मत

यूं तो मालाएं कई प्रकार की होती हैं जैसे पूâलों की, रत्नों की, बीजों की एवं धातुओं की आदि। कुछ को हम आभूषण के रूप में धारण करते हैं तो कुछ को मन एवं एकाग्रता के लिए न केवल गले में धारण करते हैं बाqल्क हाथों से जाप करने के प्रयोग में भी लाते हैं। माला आपका भाग्य बदल भी सकती है और भाग्य का नाश भी कर सकती है। आपको माला कौन सी और कब धारण करना चाहिए, यह किसी ज्योतिष से पूछकर ही करना चाहिए। हालांकि हम यहां जिन मालाओं का जिक्र कर रहे हैं उससे आपको कोई नुकसान नहीं होगा। फिर भी आप माला धारण करने से पूर्व किसी ज्योतिष से सलाह अवश्य लें। यदि जीवन में कोई संकट है, धन का अभाव है, सुख-शांति नहीं है तो आप इन विशेष प्रकार की मालाओं के ये उपाय अपनाकर अपना भाग्य बदल सकते हैं। आओ जानते हैं कौन सी माला पहने का क्या है लाभ..
वैजयंती के बीजों की माला
वैजयंती पूâलों का बहुत ही सौभाग्यशाली वृक्ष होता है। मान्यता है कि पुष्य नक्षत्र में वैजयंती के बीजों की माला धारण करना बहुत ही शुभ फलदायक है। इस माला को धारण करने के बाद ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव खत्म हो जाता है, खासकर शनि का दोष समाप्त हो जाता है। इसको धारण करने से नई शक्ति तथा आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। मानसिक शांति प्राप्त होती है जिससे व्यक्ति अपने कार्यक्षेत्र में मन लगाकर कार्य करता है। इस माला को किसी भी सोमवार अथवा शुक्रवार को गंगाजल या शुद्ध ताजे जल से धोकर धारण करना चाहिए।


कमल के बीजों की माला
कमल के पूâल का हिन्दू धर्म में बहुत महत्व है। कमल पुष्प के बीजों की माला को कमल गट्टे की माला कहा जाता है। इस माला को धारण करने वाला शत्रुओं पर विजयी होता है। मां काली की उपासना के लिए काली हल्दी अथवा नीलकमल की माला का प्रयोग करना चाहिए। माता लक्ष्मी की उपासना के लिए कमल गट्टे की माला शुभ मानी गई है। इसको धारण करने से लक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। अक्षय तृतीया, दीपावली, अक्षय नवमी के दिन इस माला से कनकधारा स्तोत्र का जप करने वाले को धनलाभ के अवसर मिलते रहते हैं।


तुलसी के बीजों की माला
तुलसी के बीजों की माला बहुत ही लाभदायक होती है। तुलसी मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है। श्यामा तुलसी और रामा तुलसी। श्यामा तुलसी अपने नाम के अनुसार ही श्याम वर्ण की होती है तथा रामा तुलसी हरित वर्ण की होती है। तुलसी और चंदन की माला विष्णु, राम और कृष्ण से संबंधित जपों की सिद्धि के लिए उपयोग में लाई जाती है। इसके लिए मंत्र ‘ॐ विष्णवै नम:’ का जप श्रेष्ठ माना गया है। मांसाहार आदि तामसिक वस्तुओं का सेवन करने वाले लोगों को तुलसी की माला धारण नहीं करनी चाहिए।


श्यामा तुलसी
श्यामा तुलसी की माला धारण करने से विशेष रूप से मानसिक शांति प्राप्त होती है, ईश्वर के प्रति श्रद्धा-भक्ति बढ़ती है, मन में सकारात्मक भावना का विकास होता है, आध्यााqत्मक उन्नति के साथ ही पारिवारिक तथा भौतिक उन्नति होती है। इस माला को शुभ वार, सोम, बुध, बृहस्पतिवार को गंगाजल से शुद्ध करके धारण करना चाहिए।
रामा तुलसी माला
इस माला को धारण करने से व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास में वृद्धि तथा सााqत्वक भावनाएं जागृत होती हैं। अपने कर्तव्यपालन के प्रति मदद मिलती है। इस माला को शुभ वार, सोम, गुरु, बुध को गंगाजल से शुद्ध करके धारण करना चाहिए।
तुलसी के बीजों की माला के अन्य लाभ
तुलसी की माला में विद्युत शक्ति होती है। इस माला को पहनने से यश, र्कीित और सौभाग्य बढ़ता है। शालिग्राम पुराण में कहा गया है कि तुलसी की माला भोजन करते समय शरीर पर होने से अनेक यज्ञों का पुण्य मिलता है। जो भी कोई तुलसी की माला पहनकर नहाता है, उसे सारी नदियों में नहाने का पुण्य मिलता है। तुलसी की माला पहनने से बुखार, जुकाम, सिरदर्द, चमड़ी के रोगों में भी लाभ मिलता है। संक्रामक बीमारी और अकाल मौत भी नहीं होती, ऐसी र्धािमक मान्यता है। तुलसी माला पहनने से व्यक्ति की पाचन शक्ति, तेज बुखार, दिमाग की बीमारियों एवं वायु संबंधित अनेक रोगों में लाभ मिलता है।
लाल चंदन की माला
चंदन २ प्रकार के पाए जाते हैं- रक्त एवं श्वेत। चंदन का गुण शीतल है। यदि आपको सर्दी की शिकायत रहती है तो इसे धारण न करें। मां दुर्गा की उपासना रक्त चंदन की माला से करना चाहिए। इससे मंगल ग्रह के दोष भी दूर होते हैं। तुलसी और चंदन की माला विष्णु, राम और कृष्ण से संबंधित जपों की सिद्धि के लिए उपयोग में लाई जाती है। इसके लिए मंत्र ‘ॐ विष्णवै नम:’ का जप श्रेष्ठ माना गया है। चंदन की माला धारण करने से नौकरीपेशा में उन्नति तो होती ही है, सभी लोग ऐसे व्यक्ति से खुश रहते हैं और सभी उसके मित्र बने रहते हैं। ऐसे व्यक्ति को सभी ओर से सहयोग प्राप्त होता रहता है। चंदन कई रोगों को शांत करता है, जैसे तृषा, थकान, रक्तविकार, दस्त, सिरदर्द, वात पित्त, कफ, कृमि और वमन आदि।
सपेâद चंदन की माला
सपेâद चंदन की माला से महासरस्वती, महालक्ष्मी मंत्र, गायत्री मंत्र आदि का जप करना विशेष शुभ फलप्रद होता है। इसके अतिरिक्त इस माला को मानसिक शांति एवं लक्ष्मी प्रााqप्त के लिए भी गले में धारण करने से लाभ होता है।
स्फटिक माला
स्फटिक पत्थर देखने में कांच जैसा प्रतीत होता है। स्फटिक पत्थर से विशेष किंटगदार मनके बनाकर मालाएं भी बनाई जाती हैं, जो अत्यंत आकर्षक होने के बावजूद अल्प मोली होती हैं। स्फटिक की माला धारण करने से शुक्र ग्रह दोष दूर होता है। माता लक्ष्मी की उपासना के लिए स्फटिक की माला शुभ मानी गई है। स्फटिक पंचमुखी ब्रह्मा का स्वरूप है। इसके देवता कालााqग्न हैं। इसके उपयोग से दु:ख और दारिद्र नष्ट होता है। पुण्य का उदय होता है शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है एवं यह पाप का नाशक है। इसका मंत्र है- ‘पंचवक्त्र: स्वयं रुद्र: कालााqग्नर्नाम नामत:।।’ सोमवार को स्फटिक माला धारण करने से मन में पूर्णत: शांति की अनुभूति होती है एवं सिरदर्द नहीं होता। शनिवार को स्फटिक माला धारण करने से रक्त से संबंधित बीमारियों में लाभ होता है। अत्यधिक बुखार होने की ाqस्थति में स्फटिक माला को पानी में धोकर कुछ देर नाभि पर रखने से बुखार कम होता है एवं आराम मिलता है।


मोती, सीप या शंख माला
मोती, शंख या सीप की माला धारण करने वाले को संसार के समस्त प्रकार के लाभ मिलते हैं। इसके पहनने से चन्द्रमा संबंधी सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। यह माला विशेषकर कर्वâ राशि के जातकों के लिए उपयोगी मानी जाती है।
जामुन की गुठली की माला
जामुन की माला प्राय: मकर व वुंâभ राशि के जातकों के लिए उपयोगी मानी गई है। माना जाता है कि इसको धारण करने से शनि से संबंधित सभी दोष नष्ट हो जाते हैं।
हल्दी की माला
इस माला को हरिद्रा की गांठ से र्नििमत किया जाता है। इस माला का विशेष उपयोग पीतांबरा देवी, बगलामुखी मंत्र के जप-अनुष्ठान में किया जाता है। हल्दी की माला विशेषकर धनु एवं मीन राशि वाले जातकों के लिए उपयोगी मानी गई है। हल्दी की माला भाग्य दोष का हरण करती है। हल्दी की माला धन एवं कामना र्पूित और आरोग्यता के लिए श्रेष्ठ है। ऐसा माना जाता है कि पीलिया से पीड़ित व्यक्ति को हल्दी की माला पहनाने से पीलिया समाप्त हो जाता है। यदि गुरु को बलवान बनाना है तो यह माला धारण करें। इसको धारण करने से गुरु ग्रह संबंधित सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। भगवान गणेश की उपासना के लिए हल्दी और दूब की माला लाभकारी होती है और बृहस्पति के लिए हल्दी या जीया पोताज् की माला का प्रयोग करें। शत्रु बाधा निवारण के लिए इस माला पर बगलामुखी देवी के मंत्र का जाप किया जाता है। बृहस्पति ग्रह के मंत्र का जाप करने से भी शुभ फल प्राप्त होता है।
रुद्राक्ष की माला
यह माला किसी ज्योतिष से पूछकर ही पहनें। यह आपके रक्तचाप को वंâट्रोल या अनवंâट्रोल कर सकती है। आमतौर पर एक से लेकर चौदहमुखी रुद्राक्ष की माला बनाई जाती है। कहते हैं कि २६ दानों की माला सिर पर, ५० की गले में, १६ की बांहों में और १२ की माला मणिबंध में पहनने का विधान है। १०८ दानों की माला पहनने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। पद्म पुराण, शिव महापुराण अनुसार इसे पहनने वाले को शिवलोक मिलता है।





शिवपुराण में कहा गया है-
यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्ष: फलद: शुभ:।
न तथा दृश्यन्ते अन्या च मालिका परमेश्वरि।।
अर्थात : विश्व में रुद्राक्ष की माला की तरह दूसरी कोई माला फल देने वाली और शुभ नहीं है।
श्रीमद् देवी भागवत में लिखा है-
रुद्राक्ष धारणच्च श्रेष्ठ न किचदपि विद्यते।
अर्थात : विश्व में रुद्राक्ष धारण से बढ़कर कोई दूसरी चीज नहीं है। रुद्राक्ष की माला श्रद्धा से पहनने वाले इंसान की आध्यााqत्मक तरक्की होती है।

रुद्राक्ष
यह सर्वकल्याणकारी, मंगल प्रदाता एवं आयुष्यवद्र्धक है। पंचमुखी रुद्राक्ष मेष, धनु, मीन, लग्न के जातकों के लिए अत्यंत उपयोगी माना गया है। यह माला सामान्यत: सभी मंत्रों के जप के लिए उपयोगी मानी गई है। रुद्राक्ष की छोटे दानों की माला अधिक शुभ मानी जाती है। जितने बड़े दानों की माला होती है, उतनी ही वह सस्ती भी होती है।
मूंगे की माला
मूंगे के पत्थरों से बनाई गई इस माला से मंगल ग्रह की शांति होती है, विशेषकर मेष और वृाqश्चक राशि के जातकों के लिए उपयोगी मानी गई है। मूंगा मंगल ग्रह का रत्न है अर्थात मूंगा धारण करने से मंगल ग्रह से संबंधित सभी दोष दूर हो जाते हैं। मूंगा धारण करने से रक्त साफ होता है तथा रक्त से संबंधित सभी दोष दूर हो जाते हैं। मूंगा धारण करने से मान-स्वाभिमान में वृद्धि होती है एवं मूंगा धारण करने वाले पर भूत-प्रेत तथा जादू-टोने का असर नहीं होता। मूंगा धारण करने वाले की व्यापार या नौकरी में उन्नति होती है। मूंगे को सोने या तांबे में पहनना अच्छा माना जाता है।
नवरत्न की माला
ज्योतिष शास्त्र की भारतीय पद्धति में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु को ही मान्यता प्राप्त है। असली नवरत्न माला में अनेक गुण पाए जाते हैं। इसे धारण करने मात्र से अनेक सफलता एवं सिद्धियां प्राप्त होती हैं। प्रत्येक ग्रह को नवग्रहों में से किसी एक ग्रह विशेष से संबद्ध किया गया है। इस नवरत्न माला में वैज्ञानिक आधार पर निम्न तााqत्वक सरंचना पाई जाती हैं, जैसे एल्युमीनियम, ऑक्सीजन, क्रोमियम तथा लौह, वैâाqल्शयम कार्बोनेट, मैग्नीशियम, बैरीलियम, मिनयिम, फ्लोरीन, हाइड्रोाqक्सल, जिक्रोनियम आदि तााqत्वक संरचनाएं पाई जाती हैं। इस माला में सारे ग्रहों के रत्नों को समाहित किया गया है। इस माला को धारण करने से अनेक लाभ हैं, जैसे यश, सम्मान, वैभव, भौतिक समृद्धि में लाभ के अलावा कफ रोग, शीत रोग, ज्वर रोग आदि रोगों में भी लाभ मिलता है।

Saturday, August 4, 2018

सुबह बोलें यह शिव मंत्र, तो मिलेगी उम्मीदों से ज्यादा सफलता

सफलता के लिए, वक्त, साधन व धन के सही उपयोग के साथ इच्छाशक्ति और मनोबल का सकारात्मक होना भी निर्णायक होता है। धार्मिक उपायों की बात करें तो भगवान शिव की भक्ति न केवल मन को ऊर्जावान, मजबूत बनाने वाली होती है बल्कि संकल्प को पूरा करने में आने वाली बाधाओं को दूर करने वाली भी मानी गई है। 

शिव चरित्र, जीवन में छुपे वैभव, वैराग्य व संहार के साथ कल्याण का भाव जीवन के यथार्थ से जोड़कर रखने की सीख देता है। 

ऐसे ही कल्याणकारी देवता भगवान शिव की पूजा के लिए शास्त्रों में बताए एक विशेष मंत्र का स्मरण हर रोज सुबह खासतौर पर सोमवार या शिव तिथियों जैसे अष्टमी आदि पर किया जाए तो इसके प्रभाव से भरपूर मानसिक शक्ति मिलने के साथ जीवन तनाव, दबाव व परेशानियों से मुक्त रहता है और उम्मीदों से भी ज्यादा सफलता मिलती है। 


जानिए यह विशेष शिव मंत्र -

- सुबह शिवलिंग या शिव की मूर्ति का पवित्र जल स्नान कराकर चंदन, अक्षत व बिल्वपत्र अर्पित करें। धूप व दीप लगाकर नीचे लिखे शिव मंत्र का ध्यान करें - 

शान्ताकारं शिखरशयनं नीलकण्ठं सुरेशं। 

विश्वाधारं स्फटिकसदृशं शुभ्रवर्णं शुभाङ्गम्।।

गौरीकान्तं त्रितयनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं।

वन्दे शम्भुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।

इन मंत्रों से करें पार्थिव शिवलिंग की पूजा

शिव उपासना से कामनाओं की पूर्ति के लिए पार्थिव शिवलिंग पूजा बहुत ही शुभ मानी गई है। खासतौर पर सोमवार के दिन पार्थिव शिवलिंग पूजा मनचाहे सुख देने वाली मानी गई है। जानते हैं पार्थिव शिवलिंग पूजा की सरल विधि -


- सुबह स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र पहन किसी पवित्र जगह की मिट्टी से पार्थिव शिवलिंग बनाए। शमी या पीपल के पेड़ की जड़ की मिट्टी या गंगा नदी  की मिट्टी बहुत ही पवित्र मानी जाती है।

- ऊँ शूलपाणये नम: यह मंत्र बोलकर शिवलिंग की प्रतिष्ठा करें।

- भगवान शिव का ध्यान कर पूजन शुरु करें। विशेष मंत्र न याद हो तो नाम मंत्र बोलकर ही पूजा करें।

- ॐ शिवाय नम:। ॐ महेश्वराय नम:। ॐ शम्भवे नम: यह मंत्र बोलकर पाद्य, अर्घ्य और आचमन करें।

- पार्थिव शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराएं।

- पंचामृत स्नान के बाद नीचे लिखे सरल मंत्रों से पूजा सामग्री अर्पित कर पूजा करें -

- ॐ ज्येष्ठाय नम:। वस्त्र अर्पित करें।

- ॐ रुद्राय नम:। जनेऊ अर्पित करें।

- ॐ कपर्दिने नम:। फिर से आचमन करें।

- ॐ कालाय नम:। गंध अर्पित करें।

- ॐ कलविकरणाय नम:। अक्षत चढ़ाए।

- ॐ बल विकरणाय नम:। बिल्वपत्र, धतुरा समर्पित करें।

- ॐ बलाय नम:। धूप लगाएं।

- ॐ बल प्रमथनाय नम:। दीप प्रज्जवलित करें।

- ॐ नीलकंठाय नम:। नैवेद्यं लगाएं।

- ॐ भवाय नम:। मौसमी फल चढ़ाएं।

- ॐ मनोन्मनाय नम:। आचमन करें।

- ॐ शम्भवे नम:। सुपारी चढाएं।

- ॐ शिव प्रियाय नम:। दक्षिणा अर्पित करें।

- ॐ शम्भवे नम:। नमस्कार करें।

- ॐ पार्थिवेश्वराय नम: बोलकर पुष्प अर्पित कर क्षमा मांग कामनापूर्ति की प्रार्थना करें।

पूजा के दौरान पार्थिव शिवलिंग की पत्र-फूलों से ढंककर पूजा करें। जिससे लिंग की मिट्टी का क्षरण नहीं होता है।

Friday, August 3, 2018

जानिए, किस चीज़ के शिवलिंग की पूजा का क्या होता है शुभ प्रभाव?

शिवलिंग, शिव का निराकार स्वरूप है। पौराणिक मान्यता है कि शिवलिंग पूजा उस शक्ति की उपासना है, जो सृष्टि रचना का कारण है। शिवलिंग व अरघा भी शिव-शक्ति का सामूहिक स्वरूप होकर सृजन या उत्पत्ति के प्रतीक माने जाते हैं, जो अर्द्धनारीश्वर रूप में भी पूजनीय है। 

यही कारण है कि कण-कण और हर जीव में शिव मानकर अलग-अलग पदार्थों के शिवलिंग की उपासना प्रदोष, चतुर्दशी, अष्टमी या सोमवार की पुण्यतिथियों पर सांसारिक इच्छाओं को जल्द पूरा करने वाली मानी गई है। जानिए, किस चीज़ का शिवलिंग कौन-सी कामना सिद्ध करता है - 

- हवन-यज्ञ की विभूति यानी भस्म से बने शिवलिंग मनचाही कामना सिद्ध करते हैं।

- अक्षत, गेंहू या जौ के आटे से बने शिवलिंग की पूजा पारिवारिक सुख-शांति व संतान की कामना पूरी करती है। 

- दही का जल निकालकर निथारकर बने शिवलिंग धन कामना पूरी करते हैं। 

- पीपल की लकड़ी से बने शिवलिंग अभाव व दरिद्रता का नाश करते हैं। 

- चंदन-कस्तूरी से बने शिवलिंग ऐश्वर्य से भरे जीवन की कामना पूरी करते हैं। 

- रोगमुक्ति के लिए मिश्री या शक्कर के बने शिवलिंग मंगलकारी होते हैं। 

- मकान या संपत्ति की चाहत पूरी करने के लिए फूलों से बने शिवलिंग की पूजा करें। 

- लहसुनिया के शिवलिंग शत्रु बाधा दूर करते हैं। 

- मृत्यु व काल का भय दूर्वा दल से बने शिवलिंग पूजा से दूर होता है। 

- चांदी, सोने या मोती से बने शिवलिंग क्रमश: पैसा, खुशहाली व भाग्य वृद्धि करते हैं। 

- स्फटिक शिवलिंग की पूजा हर कामना और कार्य सिद्धि करने वाली मानी गई है।

Thursday, August 2, 2018

महिमा पारद शिवलिंग की

ज्योतिष की दृष्टि से कर्क, वृषभ, तुला, मिथुन और कन्या राशि के जातकों को इसकी पूजा से विशेष फल प्राप्त होते हैं। सामान्य रूप से इसके पूजन से विद्या,धन, ग्रहदोष निवारण, कार्य में आने वाली बाधाएं और ऊपरी बाधाएं दूर होकर सुख -समृद्धि प्राप्त होती है।


सृष्टि के प्रारंभ से ही आशुतोष भगवान सदाशिव की आराधना निराकार और साकार दोनों ही रूपों में की जाती रही है। मनुष्य के अलावा शिव आराधना देवता,दानव, किन्नर,गंधर्व, भूत-प्रेत पिशाचादि इतर योनि के जीव भी करते हैं। शिवभक्त पुष्पदंत के अनुसार महेशान्नापरोदेवो यानी भगवान महेश से बढ़कर कोई अन्य देव नहीं है इसलिए उन्हें महादेव कहा गया है। इनकी लिंग रूप में आराधना युगों-युगों से की जाती रही है। ये लिंग अनेक प्रकार की धातु, मणि, मिट्टी और पाषाण से निर्मित होते हैं हैं। कुछ शिवलिंग स्वयंभू होते हैं तथा कुछ ज्योर्तिलिंग होते हैं। इन सभी प्रकार के शिवलिंगों की आराधना का स्थान और समय के अनुसार अपना अपना महžव है। किंतु इन सबमें सर्वोच्च शिवलिंग पारद धातु से निर्मित माना गया है। रसेन्द्र पुराण में कहा गया है-बद्ध: साक्षात्सदाशिव: यानी दोष हीन बद्ध पारा साक्षात् सदाशिव का ही रूप है। इसलिए महाशिवरात्रि सहित प्रत्येक माह में पड़ने वाल प्रदोष व्रत पर इसकी उपासना विशेष पुण्यदायिनी होती है।

इस शिवलिंग में शिव-शक्ति लक्ष्मी, कुबेर सहित तैंतीस कोटि देवता का निवास होता है। इसे घर में स्थापित करने पर भूमिदोष,पितृदोष,कुल देवी देवता के दोष और नवग्रह से होने वाली पीड़ा से मुक्ति मिलती है। पारद शिवलिंग को रसलिंग भी कहा जाता है। भगवान शंकर के जितने नाम कहे गए हैं उतने ही नाम पारद के भी बतलाए हैं। बद्ध पारद और भगवान शिव में कोई अन्तर नहीं है। इनका ध्यान करने से मन की चंचलता शांत होती है। संपूर्ण त्रैलोक्य में मन को शांत और नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय रसलिंग का पूजन और दर्शन है। इस लिंग पूजा के पांच प्रकार बताए गए हैं। भक्षण ( पारद से निर्मित भस्मों से रोगोपचार), स्पर्शन ( रसलिंग को स्पर्श करना), दान ( रसलिंग का दान करना),ध्यान ( इसके दिव्य स्वरूप का ध्यान करना) तथा परिपूजन ( षोडशोपचारादि पूजन करना)। इनमें भक्षण को छोड़कर शेष चार प्रकार की अर्चना सभी के द्वारा की जा सकती है।
पारद में एक अरब गुण होते हैं। इसके दर्शन,स्पर्श और पूजन से मिलने वाले फल के बारे में कहा गया है कि जो मनुष्य भक्ति पूर्वक रसलिंग बनाकर पूजन करता है वह तीनों लोकों में जितने शिवलिंग हैं,उन सब की पूजा के फल को प्राप्त होता है। स्वयंभू सहस्रों शिवलिंगों की पूजा करने से जो फल प्राप्त होता है,उससे करोड़ गुना फल पारद शिवलिंग की पूजा से प्राप्त होता है।

केदारादीनि लिंगानि पृथिव्यां यानि कानिचित।
तानि दृष्टवा य यत्पुण्यं तत्पुण्यं रसदर्शनात्।।

यानी इस पृथ्वी पर केदारनाथ से लेकर जितने भी शिवलिंग हैं उन सबके दर्शन करने से जो पुण्य प्राप्त होता है,वह पुण्य केवल पारदशिवलिंग के दर्शन मात्र से होता है। अन्य स्थान पर कहा गया है कि हे पार्वती! जो मनुष्य ह्वदय कमल में स्थित पारद का स्मरण करता है,वह अनेक जन्मों के संचित पापों से तत्काल छूट जाता है। पारद शिवलिंग की महिमा का वर्णन इन शब्दों मे पढ़कर स्वत: श्रद्धा जाग्रत हो जाती है- जो पुण्य एक सौ अश्वमेध यज्ञ करने से ,करोड़ो गाएं दान करने से, एक हजार तोला स्वर्ण दान करने से तथा सब तीर्थो में अभिषेक करने से होता है, वही पुण्य पारद शिवलिंग के दर्शन मात्र से होता है।

सर्वसिद्धिप्रदं देविं सर्वकामफलप्रदम्।
स्मरणं रस राजस्य सर्वोपद्रवनाशनम्।।

हे देवि ! रसराज के स्मरण मात्र से सर्वप्रकार की सिद्धि, सब कार्यो में सफलता तथा सभी उपद्रवों का नाश होता है।

सप्तद्वीपे धरण्यांच पाताले गगने दिवि।
यान्यर्चयन्ति लिंगानि तत्पुण्यं रस पूजया।।

सातों द्वीपों,पृथ्वी,पाताल,गगन एवं दिशाओं में स्थित शिवलिंगों के पूजन से जो पुण्य होता है,वही पुण्य केवल पारदशिवलिंग की पूजा से प्राप्त होता है।

पूजन विघि
महाशिवरात्रि के दिन दोपहर में जिस समय अभिजित मुहूर्त हो, दस संस्कारों से संस्कारित पारद धातु का अंगुष्ठ प्रमाण का शिवलिंग बनवाकर अपने पूजा कक्ष में ईशान्य कोण में स्थापित करें। लिंग का षोडषोपचार पूजन से करने अथवा करवाने के बाद रूद्राक्ष की माला से ऊं पारदेश्वराय नम: इस मंत्र की आवृत्ति एक हजार आठ बार करें। इसके बाद प्रतिदिन शिवलिंग का सावधानीपूर्वक स्त्रान, धूप,दीप, नैवेद्य सहित अर्चना करते हुए एक पुष्प अर्पण करें। उपर्युक्त मंत्र की एक सौ आठ आवृत्ति कम से कम अवश्य करें। ज्योतिष की दृष्टि से कर्क, वृषभ, तुला, मिथुन और कन्या राशि के जातकों को इसकी पूजा से विशेष फल प्राप्त होते हैं। सामान्य रूप से इसके पूजन से विद्या,धन, ग्रहदोष निवारण, कार्य में आने वाली बाधाएं और ऊपरी बाधाएं दूर होकर सुख -समृद्धि प्राप्त होती है। यह आराधना एक साल तक निर्बाध रूप से करते रहने पर साक्षात शिव की कृपा होती है।

ज्योतिर्विद् डॉ. गोविन्द माहेश्वरी,
संविदा प्राध्यापक, ज्योतिर्विज्ञान अध्ययनशाला,
विक्रमादित्य विश्वविद्यालय, उज्जैन 

Thursday, July 12, 2018

करोड़ मंत्रों के तुल्य -om नम: शिवाय




पंचाक्षरेण मंत्रेण पत्रं पुष्पमथापि वा
य: प्रयच्छति शर्वाय तदनंतफलं सकृत
पांच अक्षरों के मंत्र अर्थात 'om नम: शिवायÓ का जाप करना तथा इस मंत्र के द्वारा जो भ मनुष्य पत्र-पुष्प 
और जल इत्यादि का समर्पण देवासुरेश्वर भगवान शंकर को एक बार भी करता है, तो वह अनंत फल पाता है।
 भगवान आदि अनंत शिव शंकर के मुखारविंद से सात करोड़ मंत्र निकले, परंतु वे सभी मंत्र मिलकर भी इस पंचाक्षरी मंत्र की सोलहवीं 
कला के समान भी नहीं होते हैं। विधि-विधान से दीक्षित हो अथवा अदीक्षित हो, कैसा भी क्यों न हो,
 मनुष्य मात्र तो क्या, जो भी प्राणी इस पंचाक्षरी मंत्र का जाप किया करता है, वह अवश्य ही भगवान 
शंकर का भक्त हो जाया करता है। घोर पापी भी पापों से तुरंत ही मुक्त हो जाया करता है, इसमें जरा 
भी संदेह नहीं है। समस्त लोकों व सृष्टियों तथा तीनों भुवनों में 
इस पांच अक्षरों वाले मंत्र से अधिक कुछ 
भी श्रेय नहीं है। पंचाक्षरी मंत्र के द्वारा बिल्व के पत्तों से जो
 मनुष्य भगवान शिव का पूजन करता है,
 वह ईश्वरीय पद को प्राप्त करता है।

शिव पूजा से पाएं कष्टों से मुक्ति व मोक्ष


रोग शांति के लिए : उड़द से शिवलिंग का पूजन करने से रोग की शांति होती है। विधिपूर्वक पूजन

 व मंत्रों से शिवलिंग का ढाई-ढाई घटी बिना धारा तोड़े अभिषेक करने से असाध्य से असाध्य रोगों 
में भी लाभ होता है। यह पूजन तब तक जारी रहे जब तक शिवजी के सहस्र नामों का जप पूर्ण नहीं हो जाता।
संतान सुख के लिए : शिवलिंग की सहस्रनामों से , नाना प्रकार के शुभ द्रव्यों से पूजा करने तथा मंत्रों 
से घी की धारा से अभिषेक करने पर संतान सुख मिलता है। अभिषेक तब तक करते रहें जब तक नामों 
का जप पूर्ण नहीं हो जाता।
लक्ष्मी प्राप्ति के लिए : नाना प्रकार की सामग्रियों से शिवजी की पूजा करने तथा बिल्वपत्रों 
को पंचाक्षरी मंत्र का उच्चारण करते हुए एक लाख की संख्या में चढ़ाएं। इच्छापूर्ति होगी।
शत्रु नाश के लिए : राई के पुष्पों से शिवजी का पूजन करने से शत्रुओं का नाश होता है। शत्रुओं को 
मृत्युतुल्य कष्ट होता है। राई के पुष्पों से पूजन के साथ सरसों के तेल की धारा से शिवलिंग का 
अभिषेक करने से शत्रु नष्ट होते हैं, किंतु सावधान, बिना गुरु या पंडित के यह पूजन पूजनकर्ता के
 लिए प्राणघातक हो सकता है।
मोक्ष के लिए : अगस्त्य के एक लाख फूलों से पूजन व तुलसी पत्रों से पूजन तथा तिल के पुष्पों से 
विशेष पूजन करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
दिव्य गंधों से पूजन

जो मनुष्य शिवलिंग का पूजन दिव्य गंधों से करता है, वह सौ करोड़ दिव्य वर्षों तक भगवान के
 लोक शिवलोक में निवास करता है। चंदन के लेपन से किसी अन्य सुगंधित पदार्थ के लेपन से
 दोगुना फल प्राप्त होता है। चंदन से भी अधिक गुणा पुण्य फल अगरू के लेपन से प्राप्त होता है। 
अगरू से भी अधिक सौगुणा पुण्य फल कुमकुम के लेपन से मिलता है। चंदन, अगरू, कपूर, नाभिरोचन, 
कुमकुम इन सबसे जो शिवलिंग का विलेपन करता है उसे गाणपत्य पद की प्राप्ति होती है। 
जो मनुष्य भगवान शिव के लिए विधिपूर्वक जो भी अर्पण करता है, वह करोड़ों वर्षों तक भगवान 
शिव के लोक शिवपुर में निवास करता है।

किस फूल के चढ़ाने से मिलेगा लाख गुणा फल


आक के फूलों से की गई पूजा श्रेष्ठ मानी जाती है। सौ करवीर के फूलों सं अधिक श्रेष्ठ बिल्वपत्र

 माना गया है। एक सौ बिल्वपत्र से श्रेष्ठ कुश और सौ कुश से भी श्रेष्ठ शमी के फूल माने गए हैं।
 धतूरे के फूल भी श्रेष्ठ माने गए हैं। इनसे भगवान शिव का जो प्राणी भक्तियुक्त विधि-विधान से 
पूजन करता है, वह करोड़ों कल्पों तक शिवपुर में निवास करता है।

न चढ़ाएं ऐसे फूल
शिव पूजा बंधूक की तरह का फूल, कुंद, केतकी, यूथिका, मदंतिका, शिरीष और अर्जुन के पुष्पों
 से भगवान शिव का पूजन नहीं करना चाहिए। यह फूल पूजा में वर्जित माने गए हैं।
शिवलिंग पर चढ़ाए गए अलग-अलग वृक्षों के फूल एक प्रहर से लेकर चार पहर तक ठहरता है, 
जो फूल केश और कीटों से युक्त हों, पदुर्षित हो तथा स्वयं ही गिर हुए हों उनका त्याग कर देना चाहिए।
 किसी भी वृक्ष की कलियों से शिव का पूजन नहीं करना चाहिए। यदि फूलों का लाभ न हो, तो ऐ
सी दशा में पत्रों को भगवान शिव के लिए निवेदित करना चाहिए।
चार कोस तक स्वायंभुव शिवलिंग क्षेत्र

देवों के देव भगवान शिव की महिमा समस्त भवुनों में फैली है। प्रभु अपने भक्तों को दुलभ वर प्रदान 

करते हैं। शिवालय के चारों ओर एक कोस तक शिव का ही क्षेत्र माना जाता है। यदि इस क्षेत्र में देहधारी 
प्राण त्यागते हैं या उनकी मृत्यु होती है, तो वह शिवलोक को जाते हैं। मनुष्यों द्वारा स्थापित शिवलिंग 
अर्थात शिवालय के चारों ओर एक कोस तक शिव का क्षेत्र बतलाया गया है। जिस क्षेत्र में स्वायंभुव 
शिवलिंग है, वहां एक योजन (चार कोस) तक शिव का क्षेत्र है। ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग हो,
 तो दो कोस तक शिव का क्षेत्र कहा गया है। कैसा भी पाप करने वाला कोई भी मनुष्य वहां पर मृत
 हो जाए, तो वह भी शिवलोक में प्रतिष्ठित हुआ करता है, जो कि देवों के लिए भी दुर्लभ है। इसलिए सभी 
प्रयत्नों से वहां पर स्नानादि करना चाहिए और शिव क्षेत्र में समीप ही निवास करना चाहिए।
 जो मनुष्य शिवालय में कुआं या बावड़ी बनवाता है, वह अपने इक्कीस कुलों सहित शिवलोक में प्रतिष्ठित 
हुआ करता है।